खाटू श्याम जी का इतिहास

"खाटू श्याम मंदिर,खाटू, जयपुर" राजस्थान में स्थित खाटू श्याम जी मंदिर भक्तों की आस्था और भगवान कृष्ण के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। हर साल 85 लाख से अधिक भक्त यहाँ भगवान के दर्शन और आशीर्वाद के लिए आते हैं। राजस्थान के सीकर से 65 किमी दूर स्थित यह मंदिर, अपनी सुंदरता और दिव्यता के लिए प्रसिद्ध है। आइए और इस अनुभव का हिस्सा बनें।

"खाटू श्याम जी का मंदिर, जो आज भारत के सबसे प्रसिद्ध कृष्ण मंदिरों में गिना जाता है, का निर्माण सबसे पहले 1027 ईस्वी में हुआ। इसे रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी निरामला कंवर ने बनवाया। बाद में, 1720 ईस्वी में दीवान अभयसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया और गर्भगृह का निर्माण किया। मंदिर का इतिहास महाभारत से जुड़ा हुआ है, जहाँ खाटू श्याम जी को कलयुग में भगवान कृष्ण का अवतार माना गया। यह मंदिर न केवल धार्मिक स्थल है बल्कि श्रद्धा और आस्था का प्रतीक भी है।"

"राजस्थान के सीकर जिले में खाटू श्याम जी का भव्य मंदिर स्थित है, जहाँ हर दिन लाखों भक्त उनकी कृपा पाने के लिए आते हैं। श्याम बाबा को भगवान श्रीकृष्ण के कलयुगी अवतार के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि जो भी उनके दरबार में सच्चे मन से आता है, उसकी सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं। वे न केवल भक्तों की समस्याओं का समाधान करते हैं, बल्कि उन्हें जीवन में नई ऊँचाइयों तक भी पहुँचाते हैं।"🙏

बाबा खाटू श्याम, जिनका असली नाम बर्बरीक था, महाभारत काल के एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। वे पांडुपुत्र भीम के पौत्र थे। उनकी अपार शक्ति और वीरता ने भगवान श्रीकृष्ण को अत्यधिक प्रभावित किया। श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि कलियुग में वे उनके नाम से पूजे जाएंगे। यह आशीर्वाद उन्हें भक्तों के बीच अमर बना गया।

बर्बरीक संपूर्ण इतिहास

"महाभारत काल में, वनवास के दौरान, पांडव अपनी जान बचाने के लिए भटक रहे थे। इसी समय, भीम का सामना हिडिम्बा से हुआ। दोनों के बीच विवाह हुआ और उनके पुत्र घटोत्कच ने जन्म लिया। घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक अपनी असाधारण शक्ति और वीरता के लिए जाने गए। जब महाभारत का युद्ध शुरू होने वाला था, बर्बरीक ने इसे देखने का निर्णय लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा कि वे किसका समर्थन करेंगे, तो बर्बरीक ने कहा कि वे हमेशा हारने वाले पक्ष की ओर से लड़ेंगे।"

भगवान श्रीकृष्ण युद्ध का परिणाम जानते थे और उन्हें डर था कि कहीं पांडवों के लिए उल्टा न पड़ जाए। ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को रोकने के लिए दान की मांग की। दान में उन्होंने उनसे शीश मांग लिया। दान में बर्बरीक ने उनको शीश दे दिया, लेकिन आखिर तक उन्होंने युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की।

श्रीकृष्ण ने इच्छा स्वीकार करते हुए उनका सिर युद्ध वाली जगह पर एक पहाड़ी पर रख दिया। युद्ध के बाद पांडव लड़ने लगे कि युद्ध की जीत का श्रेय किसे जाता है। तब बर्बरीक ने कहा कि उन्हें जीत भगवान श्रीकृष्ण की वजह से मिली है। भगवान श्रीकृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न हुए और कलियुग में श्याम के नाम से पूजे जाने का वरदान दे दिया।

History Details

महाभारत युद्ध में बर्बरीक की भूमिका अनोखी थी। श्रीकृष्ण ने उनके सिर को दिव्य औषधि से जीवित रखा और युद्ध का साक्षी बनाया। 18 दिनों के युद्ध के बाद, केवल दस योद्धा ही जीवित बचे। युद्ध के बाद, जब पांडव विजय के गर्व में डूबे हुए थे, श्रीकृष्ण ने उनका गर्व तोड़ने के लिए उन्हें बर्बरीक के पास ले जाने का निर्णय लिया। अर्जुन, अपनी वीरता पर गर्व करते हुए, बर्बरीक से अपनी प्रशंसा की अपेक्षा कर रहे थे।

अर्जुन गर्व से भरकर बोला-‘तब तो तुम इस बात को भी मानोगे कि यह युद्ध मैंने अपने बाहुबल से जीता है। अठारह दिन निरन्तर गांडीव की टकार से दसों दिशाएं गूंजती रहीं। भीष्म पितामह को मारना कोई हंसी-खेल नहीं था।’ भीमसेन के पौत्र बर्बरीक के मुख पर व्यंग्यभरी मुस्कान खेलने लगी, बोले- ‘हां भीष्म पितामह के विषय में मेरा भी यही विचार है, कहे चलो। रूको नहीं।’ अर्जुन फिर बोला- ‘मैंने भगदत्त जैसे महाबली को मार गिराया। द्रोण को निस्तेज कर दिया था और कर्ण, जिसके भय से धर्मराज युधिष्ठिर को रातभर नींद नहीं आती थी, उसका वध भी मेरे ही हाथों हुआ। बाद में अश्वत्थामा को मणिरहित भी मैंने ही किया। क्यों बर्बरीक, अब तो तुम मेरी और मेरे गांडीव की प्रशंसा करोगे ?’ बर्बरीक खुलकर हंसा-‘उत्तर दूंगा और भी किसी को कुछ कहना हो तो कह लो।’ भीम बोल पड़ा-‘मेरी इस पर्वत-सी विशाल गदा के विषय में क्या विचार है बर्बरीक ? तुमने देखा होगा कि इसी गदा के सहारे मैंने दुष्ट दुशासन का रक्त पिया। इसी गदा से मैंने अद्वितीय गदाधारी दुर्योधन का वध किया। हिडिम्ब, बकासुर और कीचक के वध की कहानियां भी तुमने सुनी होंगी। अब तुम मेरी वीरता के बारे में कुछ कहो।’ बर्बरीक हंस दिया- ‘कहूंगा, पहले तुम सब अपनी बात कह लो, फिर मैं सबका जवाब एक साथ दूंगा।’

नकुल और सहदेव अपनी-अपनी विशाल तलवारों की महिमा का बखान कर रहे थे। तभी युधिष्ठिर ने कहा, "बर्बरीक, मेरा मानना है कि यह युद्ध मैंने सत्य के बल पर जीता।" बर्बरीक ने एक उम्मीद भरी नज़र से श्रीकृष्ण की ओर देखा और पूछा, "श्रीकृष्ण, क्या तुम कुछ नहीं कहोगे?" श्रीकृष्ण, जो अब तक सबकी बातें सुन रहे थे, मुस्कुरा कर बोले, "मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, बर्बरीक। मैंने युद्ध में योद्धा के रूप में भाग नहीं लिया। मैं तो बस सारथी था, रथ चलाता था और युद्ध का दृश्य देखता था। इतना ही मैंने किया।" यह सुनकर बर्बरीक हंसी से झूम उठे, और उनकी हंसी से वातावरण गूंज उठा। फिर गंभीर स्वर में उन्होंने कहा, "श्रीकृष्ण, तुमने तो अच्छा किया कि सिर्फ सारथी बनकर युद्ध में भाग लिया, योद्धा के रूप में नहीं। अगर तुम शस्त्र धारण करते तो शायद पांडवों की हार होती। नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर को तो मैं महावीरों की श्रेणी में नहीं गिनता। अर्जुन और भीम जरूर महाबली हैं, लेकिन कौरव पक्ष के धनुर्धरों के मुकाबले ये दोनों भी कुछ कम ही लगते थे। अकेले भीष्म ने तो पांडवों की पूरी सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया था। उनके पास इच्छा-मृत्यु का वरदान था। उन्हें मारे जाने का डर क्या था?"
बर्बरीक ने फिर अर्जुन की ओर देखा और कहा, "अर्जुन, मैं तुम्हारे सवाल का उत्तर दे रहा हूँ। जिस गाण्डीव की तुम इतनी प्रशंसा कर रहे हो, वह उस समय कहां था जब भीष्म ने तुम्हारी सेना को बुरी तरह से काट डाला था, रथ को तोड़ दिया था, कपिध्वज जमीन पर गिरा था और तुम मूर्छित हो गए थे?"
यह संवाद न केवल युद्ध की वास्तविकताओं को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि विजय केवल बाहरी बल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि परिस्थितियों और कूटनीति का भी उसमें अहम रोल होता है।

बर्बरीक ने श्रीकृष्ण की ओर देखा और कहा, "श्रीकृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी थी, ताकि तुम लोग बच सको। फिर तुम लोग श्रीकृष्ण की सलाह पर भीष्म से यह पूछने गए थे कि उनकी मृत्यु कैसे होगी। उस वक्त क्या तुम्हें लाज नहीं आई थी? शिखण्डी के पीछे से, निहत्थे भीष्म पर मैंने तुम्हारे शस्त्रों को चलते हुए देखा था। क्या यह तुम्हारी वीरता की चरम सीमा थी?"
बर्बरीक ने एक और कड़ा वार किया, "जयद्रथ वध के दिन भी मैंने तुम्हारी वीरता देखी थी। अगर श्रीकृष्ण की माया न होती, तो क्या तुम और तुम्हारे जैसे सैकड़ों अर्जुन भी जयद्रथ की परछाईं को छू पाते?"
फिर बर्बरीक ने द्रोणाचार्य पर चर्चा करते हुए कहा, "तेजस्वी आचार्य द्रोण ने तुम्हारी सेना की जो दुर्दशा की थी, वह भी किसी से छिपी नहीं है। तब तुम्हारा वह बल और तेज कहाँ गायब हो गया था?"
बर्बरीक ने युधिष्ठिर की सत्यवादिता पर कटाक्ष करते हुए कहा, "श्रीकृष्ण की सलाह पर तुम्हें अपने गुरु के सामने झूठ बोलना पड़ा था। अश्वत्थामा के बारे में तुमने कहा था कि वह मर गया है, जबकि वह जीवित था। यह सब एक योजना का हिस्सा था, क्योंकि तुम्हारे लिए गुरु की मृत्यु का कारण केवल शोक ही हो सकता था।"
युधिष्ठिर ने तुरंत जवाब दिया, "तुम भूल रहे हो बर्बरीक! मैंने कहा था कि अश्वत्थामा मर गया है, लेकिन हाथी नहीं।"
बर्बरीक क्रोधित हो गए और बोले, "तुमने कहा था 'नर नहीं हाथी', लेकिन वह तो तुमने धीमे स्वर में कहा था। मन ही मन तुमने क्या सोचा होगा, यह सब केवल द्रोण के लिए था। वह केवल इतना ही सुन सका कि 'अश्वत्थामा मर गया है।' इसके बाद, श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंख बजाने शुरू कर दिए, जैसे सब कुछ पहले से ही तय था।"
फिर बर्बरीक ने अर्जुन की वीरता पर भी सवाल उठाया, "अर्जुन, जब कर्ण ने तुम्हारे खिलाफ बाण चलाए थे, तब तुम्हारे दिव्यास्त्र कहां गए थे? तुमने उन्हें रोकने के लिए जो अस्त्र चलाए थे, वह क्यों असफल हो गए?" बर्बरीक ने तीखा वचन जारी रखा, "वह समय था जब श्रीकृष्ण ने घोड़ों को रोककर तुम्हारी और अपनी रक्षा की थी, फिर भी तुम्हारा मुकुट कट गया था। और फिर तुम निहत्थे कर्ण को मारने गए, क्या तुम्हें इस पर लाज नहीं आई?"
यह संवाद युद्ध की जटिलताओं और पांडवों के संघर्ष की छिपी हुई सच्चाइयों को उजागर करता है, जिसमें वीरता, कूटनीति, और नैतिकता का प्रश्न उठता है।

अर्जुन हत्प्रभ हो रहा था, फिर भी बोला- ‘मैं तो रूक गया था, लेकिन श्रीकृष्ण की मुझे आज्ञा मिली थी कि यही समय है जब कर्ण को मार सकते हो। यदि कर्ण रथ का पहिया कीचड़ से निकालकर रथ पर बैठ गया तो एक क्या अनेक अर्जुन भी उसे मार नहीं पाएंगे।’ बर्बरीक की बाणी में व्यंग्य उभर आया- ‘ठीक ही किया श्रीकृष्ण ने, तुम्हें युद्ध जो जिताना था। मुझे याचक बनकर बेकार कर दिया। बली भगदत्त की प्रचण्ड शक्ति को श्रीकृष्ण ने अपनी छाती पर सहा, क्योंकि तुम्हारे शरीर के वह शत खण्ड कर देती।’ हाँ, भीम अब तुम भी सुनो, यह तो सच ही है कि तुम अतुल बल के स्वामी हो, तुमने निश्चित ही हिडिम्ब, बकासुर और कीचक को मारा। पर यह युद्ध तो गदा से नहीं जीता जा सकता था, क्योंकि इस युद्ध में इस युग के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सम्मिलित हुए थे। धनुर्धर कर्ण के सम्मुख तुम्हारी गदा को क्या हो गया था,

जो तुम जान बचाने के लिए हुए हाथियों के झुण्ड के पीछे जा छिपे थे। कर्ण ने अपने धनुष की डोरी तुम्हारे गले में डालकर तुम्हें बाहर खींच लिया था। वह चाहता तो तुम्हारा वध कर सकता था। किंतु उसने तुम्हें छोड़ दिया और तुम्हें ही क्या उसने नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर को भी छोड़ दिया था। आज तो तुम सब अपनी वीरता की डींगें हांक रहे हो, लेकिन यह भूल गए कि तुम उस महारथी से प्राण दान लेकर लौटे थे। वास्तव में ही वह सच्चा दानी था।

तभी श्रीकृष्ण और कुन्ती की आंखे टकराई। कुन्ती की आंखों में आंसू थे। किन्तु बर्बरीक बोलता ही रहा- ‘उसने अवसर मिलने पर भी तुम्हें क्यों नही मारा, यह वास्तव में अद्भुत रहस्य है। वैसे इस बात से उसकी करूणा तुम पर प्रकट होती है। जयद्रथ के सामने तुम्हारी वीरता कहां गई थी। उसने तुम्हें चक्रव्यूह में घुसने नहीं दिया था। सुनो भीम ! तुम्हारे और दुर्योधन के बीच हुए गदायुद्ध में तुम अपनी महानता प्रकट कर सकते थे, किन्तु वहां पर भी तुमने नीचता का प्रदर्शन किया। श्रीकृष्ण ही के इशारे पर गदायुद्ध के नियमों का उल्लंघन करके तुमने दुर्याधन की जांघ पर गदा मारी। धिक्कार है तुम्हें और तुम्हारी वीरता पर। बलराम तो तुम्हें तुम्हारी दुष्टता का दण्ड देने उठे थे, पर श्रीकृष्ण ने तुम्हें बचा लिया था।

क्योंकि यह सब उन्हीं के इशारे पर हुआ था।‘धन्य था दुर्योधन ! वीरता की लाज रखनी उसे आती थी। युधिष्ठिर के यह कहने पर भी हम पांचों में किसी को भी द्वन्द्व युद्ध के लिये चुन लो, उसने अपने से बली को चुना। यदि शेष चारों में से वह किसी एक को चुन लेता तो क्या होता ? गदा- युद्ध व मल्ल-युद्ध में ये सब उनके सामने खिलौने जैसे थे। वैसे युद्ध में तुम्हारी भी मृत्यु निश्चित थी। क्योंकि वह गदा-युद्ध का श्रेष्ठ ज्ञाता और बहुत फुर्तीला था।’फिर बर्बरीक सांस भरकर बोला-‘श्रीकृष्ण की नीति पराजित कैसे हो सकती थी। मुझसे यदि कोई पूछे तो मैं यही कहूंगा कि इस युद्ध के वास्तविक विजेता श्रीकृष्ण ही हैं,

जिन्होंने अपनी बुद्धि और नीति के सहारे इस युद्ध को जीता। मुझे तो इस युद्ध में चारों ओर श्रीकृष्ण ही श्रीकृष्ण नजर आते थे। श्रीकृष्ण नीति की जय हो।’यह कहकर बर्बरीक मौन हो गया। इतना सुनकर श्रीकृष्ण ने महाबली को खुश होकर यह वरदान दिया कि महाबली बर्बरीक कलियुग में तुम मेरे नाम से पूजे जाओगे और जो तुम्हें सच्चे मन से ध्याएगें वह मनवांछित फल पाएंगे। और आज यह सच जग विख्यात है कि उस काल के बर्बरीक आज के बाबा श्याम हैं। आज सारा संसार उन्हें शीश के दानी के रूप में जानता है और जो भी सच्चे मन से इनकी शरण में खाटू श्याम जी जाता है, उसके समस्त कारज प्रभु श्री श्याम पूर्ण करते हैं और उसके जीवन को सुख, सम्पदा व खुशियों से भर देते हैं